सोमवार, 5 नवंबर 2007

जिन्दगी

आकाश में उड़ती हुई पतंग हो गई, कट-कट के आज जिन्दगी अपंग हो गई।
इन्सान ने इन्सानियत ऐसे त्याग दी, जैसे सड़ा हुआ सा कोई अंग हो गई।

जन्नत में बुरे लोग बसाने पड़े है उसे, दोजख में जगह इतनी आज तंग हो गई।
हंसने को मन किया तो खुदी पर हंस दिए, किस्मत हमारी यारों अब व्यंग हो गई।

नफरत है अपने आप से कितनी न पूछिए, अपनी आइने से रात जंग हो गई।
खुशियों के इन्तजार में 'सागर' खड़ा रहा, रास्ता बदल खुशी तो गैर के संग हो गई।

किस्मत के द्वार

जाने कब खुलगे किस्मतों के द्वारा, किस्मतों के द्वार खुलते-खुलते सदिया लग जाती हैं।
न जाने फिर भी पूरे खुल पाते हैं क्या किस्मतों के द्वार।

कब खुश हुआ है आदमी अपने जीवन से, या अपनी किस्मत से
चाह रही है सदा कुछ पाने की, अच्छी किस्मतों को पाने की।

दूसरे की समझ कर अच्छी किस्मत, कोश रहे है हम अपनी किस्मत को।
लेकिन उस दूसरे को भी, अच्छी किस्मत की चाह रही है।
वह भी कोश रहा है अपनी किस्मत को

14 रत्न

लक्ष्मी कौस्तुभ पारिजातक सुरा
धन्वतरिश्चन्द्रमा धेनु
कामादुधा सुरेश्वर गजो रम्भा व देवांगना
अश्व सप्तमुखों विषं हरिधन: शंखो अमृतं
चौबुधे रत्नानीति चतुदर्श: प्रतिदिन कुर्य्य: सदा मंगलम।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

भविष्य सोच

भविष्य सोच से अभिप्राय यह है कि भविष्य के बारे में सोचना जैसे किसी व्यक्ति के घर जाते हुए मैं यह सोच सकता हूं कि वह व्यक्ति मिलेगा अथवा नहीं मिलेगा लेकिन उसके घर जाने पर पता चलेगा कि वह मकान बदलकर कहीं चला गया यह मैंने नहीं सोचा था।


मनुष्य जितना सोच सकता है कोई भी कार्य उससे ज्यादा अपने आप बन या बिगड़ जाता है इसे आप किस्मत, भगवान, (ईश्वर) की मरजी या तीसरी सोच जो भी चाहो कह सकते हैं यही भविष्य सोच है।

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

ज्योतिष

प्राचीन तथा अर्वाचीन समस्त इतिहासकारों ने वेद को प्राचीनतम तथा अपौरूषेय बताया है तथा प्रसिद्ध मानव धर्मशास्त्र प्रणेता मनु ने इसके लिए अपनी अभिव्यक्ति इस प्रकार की है:-

वेदो खिलो कर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम।
आचारच्श्रैव साधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।

इसके व्याकरण आदि छ: अंग हैं, जैसे मुखरूप व्याकरण, नेत्ररूप ज्यौतिष, कर्णरूप निरूक्त, हस्तरूप कल्प, नासिकारूप शिक्षा तथा पदारूप छन्द:-

शब्दशास्त्र मुखं ज्यौतिषं चक्षुषी
श्रोयमुक्तं निरूक्तंु च कल्प: करौ।
या तु शिक्षास्य वेदस्य सा नासिका
पादपद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधै:।।

वेदपुरूष का नेत्ररूप होने के कारण ज्यौतिष सब अंगों में श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि शारीरिक समस्त अवयवों में नेत्र की प्रधानता होती है।

वेदचक्षु: किलेदं स्मृतं ज्यौतिषं
मुख्यतया चाग्ङमध्ये स्य तेनोच्येते।
संयुतो पीतरै: कर्णनासादिभि-
श्चक्षुषाग्ङेन हीनो न किश्चित्कर:

इस नेत्ररूप शास्त्र के सिद्धान्त, गणित और फलित ये तीन अंग हैं। जिनमें क्रम से सौर, सावन, चान्द्र, नक्षत्र, पृथ्वी-गृह आदि की स्थिति का वर्णन; व्यक्त अव्यक्त आदि अनेक प्रकार के गणित का प्रतिपादन तथा जन्मकाल के प्राणियों के जीवनादि सम्बन्धी समस्त घटनाचक्रों के फल का निरूपण किया गया है।

इस प्रकार इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसके समस्त स्कन्धों का ज्ञान प्राप्त करना दुरूह नहीं तो साधारण बोधगम्य भी नहीं है। इसके साथ ही मानव के हर प्रकार के व्यावहारिक दिनचर्य्या से सम्बद्ध होने के कारण, इसका थोड़ा-बहुत ज्ञान प्रत्येक प्राणी के लिए आवश्यक भी है।


समुद्र से निकले रत्‍न
लक्ष्‍मी कौस्‍तुम परिजातक सुरा धन्‍वतरिस्‍चन्‍द्रमा धेनू कामदुधा सरेश्‍वर गजो रम्‍भा च देवांगना अश्‍व सप्‍तमुखो विषं हरि धन: शंखो अमृत चौबुधे रत्‍नानीते चतुदर्श:प्रतिदिनं कुर्य्य सदा मंगलम।

हरि, हर, हनुमान, हलधर, हरिश्‍चन्‍द पंचहकार जपे नित्‍यं महापातक नाशनम।

श्रद्धा श्राद्ध
(1)                धन प्राप्ति के लिए किया जाता है
(2)                सन्‍तान वृद्धि
(3)                पुत्र
(4)                शत्रु का नाश
(5)                 
(6)                पूज्‍नीय होने
(7)                गणों का स्‍वामी होने
(8)                जिनकी बुद्धि बांझ हो (शुद्ध बुद्धि के लिए)
(9)                सुन्‍दर पति के लिए / सौभाग्‍य गृहिणी

(10)            मनोरथ पूर्ण