सोमवार, 5 नवंबर 2007

जिन्दगी

आकाश में उड़ती हुई पतंग हो गई, कट-कट के आज जिन्दगी अपंग हो गई।
इन्सान ने इन्सानियत ऐसे त्याग दी, जैसे सड़ा हुआ सा कोई अंग हो गई।

जन्नत में बुरे लोग बसाने पड़े है उसे, दोजख में जगह इतनी आज तंग हो गई।
हंसने को मन किया तो खुदी पर हंस दिए, किस्मत हमारी यारों अब व्यंग हो गई।

नफरत है अपने आप से कितनी न पूछिए, अपनी आइने से रात जंग हो गई।
खुशियों के इन्तजार में 'सागर' खड़ा रहा, रास्ता बदल खुशी तो गैर के संग हो गई।

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