केवल 18 मंत्र अपने में समेटे ईशावास्य उपनिषद सबसे छोटा
उपनिषद है। ऊपर दिया गया मंत्र इस उपनिषद का शांति मंत्र है। दो पंक्तियों के इस
मंत्र में पूरे ब्रम्हांड का सत्य एक ऐसे दर्शन के रूप में छिपा है जिसे समझ पाना
थोड़ा कठिन ज़रूर है लेकिन एक बार समझ में आ जाने पर कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता।
यह मंत्र कहता है कि वह भी पूर्ण है और यह भी
पूर्ण है। उस पूर्ण से इस पूर्ण की उत्पत्ति होती है लेकिन फिर भी उस पूर्ण की
पूर्णता कम नहीं होती (अर्थाय उसका शेष फिर भी पूर्ण ही रह जाता है!)
काफ़ी चकरा देने वाला अर्थ है ना? इतने सारे “पूर्ण” बड़ा विकट भ्रम उत्पन्न करते हैं –इसलिए अर्थ की व्याख्या ज़रूरी है। अध्ययन और मनन से इस मंत्र को मैं जितना
समझ पाया हूँ –उसके हिसाब से लेख में इसकी व्याख्या की कोशिश
करूंगा।
इस मंत्र में “वह” ब्रह्म है और “यह” प्रकृति है। ब्रह्म
का नाम आते ही आप यदि मंत्र को हिन्दू धर्म या हिन्दुत्व से जोड़ कर देखने लगेगें
तो आप इसका वास्तविक अर्थ कभी नहीं समझ पाएंगे। ब्रह्म
से यहाँ अर्थ केवल रचयिता शक्ति से है –आप उसे किसी भी नाम
से संबोधित कर सकते हैं। ब्रह्म रचयिता है और प्रकृति उसकी रचना है।
मंत्र के अनुसार वह ब्रह्म अपने आप में पूर्ण है
–उसमें कोई कमी नहीं है। उसी
ब्रह्म में से प्रकृति का उदय होता है। प्रकृति भी अपने-आप में पूर्ण है –लेकिन ऐसा नहीं है कि ब्रह्म में से प्रकृति की सृष्टि होने पर ब्रह्म में
कोई कमी आ जाती है। अपने पूर्ण में से पूर्ण प्रकृति का सर्जना कर देने के बाद भी
ब्रह्म पूर्ण ही रहता है।
स्त्री संतान को जन्म देने से पहले भी पूर्ण
स्त्री होती है। पूर्ण संतान को जन्म देने के बाद भी वह स्त्री पूर्ण ही रहती है –उसमें कोई कमी नहीं होती। एक बीज
अपने आप में पूर्ण वृक्ष है… बीज से वृक्ष बनता है और वृक्ष
से अनेकों बीज बनते हैं। यानी बीज से बीज बनता है।
अभी भी मुश्किल है न?
चलिए इसे अब विज्ञान की निगाह से देखते हैं। विज्ञान यह सिद्ध कर चुका
है कि ऊर्जा का ना तो निर्माण किया जा सकता है और ना ही उसे नष्ट किया जा सकता है।
ब्रह्मांड में ऊर्जा आज भी उतनी ही है जितनी दो करोड़ साल पहले थी और अब से दो करोड़
साल बाद भी ऊर्जा उतनी ही रहेगी जितनी आज है। ऊर्जा ना तो घटती है और ना ही बढ़ती
है –वह केवल अपना रूप बदल लेती है। बहती हवा में जो ऊर्जा
होती है वह पवनचक्की के ज़रिए विद्युत ऊर्जा में बदलती है और जब वह विद्युत हमारे
कमरे में आकर पंखे को घुमाती तो वापस बहती हवा का रूप ले लेती है।
पूरा विश्व केवल अपना रूप बदल रहा है। इसमें ना
कुछ कम हो रहा है और ना बढ़ रहा है। ना तो किसी तारे के टूटने से ब्रह्मांड में
कमी आती है और ना ही किसी बीज के विशाल वटवृक्ष बन जाने पर ब्रह्मांड में कुछ बढ़ता
है। बस होता यह है कि ऊर्जा और पदार्थ अपना रूप
बदलते रहते हैं। यहाँ ऊर्जा ब्रह्म है और पदार्थ प्रकृति है। पदार्थ अपने आप रूप
नहीं बदल सकता। बदलने के लिए उसे ऊर्जा की ज़रूरत होती है। कोई पत्थर यूं ही
पड़े-पड़े प्रतिमा नहीं बन जाता। पत्थर का स्वरूप तभी बदलता है जब तक उसे ऊर्जा
(जैसे की बहती हवा, बहता पानी, गर्मी,
सर्दी या किसी मूर्तिकार का हथोड़ा इत्यादि) बदल नहीं देती। जब ऊर्जा
पदार्थ का स्वरूप बदल रही होती है तो हमें लगता है कि कुछ नया बन रहा है; लेकिन वास्तव में नया कुछ नहीं बन रहा होता।
आइंस्टाइन ने E=mc2 के ज़रिए
सिद्ध किया है कि
ऊर्जा पदार्थ में और पदार्थ ऊर्जा में बदल सकता है। ऊर्जा से जब पदार्थ बनता है तब
भी ऊर्जा पूर्ण रह जाती है (यानी जितनी पदार्थ के बनने से पहले थी) और पदार्थ भी
अपने आप में पूर्ण होता है।
अद्वैतवाद
क्या आप जानते हैं कि दोनों की
पूर्णता किस तरह कायम रह जाती है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि दोनों में कोई फ़र्क ही नहीं है! इसे एक और उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। मान लीजिए आपकी जेब में एक
लाख रुपए हैं। ऐसे में चलन की भाषा में आप लखपति कहलाएंगे। अब फ़र्ज़ कीजिए कि आपने
वो एक लाख रुपए बैंक में डाल दिए। अब रुपए आपकी जेब में नहीं हैं लेकिन आप अब भी
लखपति हैं! ऐसा इसलिए है क्योंकि जेब में रखे रुपए या बैंक में रखे रुपयों में कोई
फ़र्क नहीं है। रुपए तो रुपए हैं और आपका मालिकाना हक़ भी आप ही का है।
अब इस बात को गणित के दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करते
हैं। गणित के मुताबिक दस में से दस निकाल देने पर
शून्य बचता है। बहुत से लोग कहते हैं कि इस बात से यह सिद्ध हो जाता है कि पूर्ण
से पूर्ण निकालने पर पूर्ण शेष नहीं रहता। लेकिन यह ग़लत तर्क है।
आप पूर्ण से पूर्ण से निकालेंगे तभी तो पूर्ण
बचेगा ना!… दस की
संख्या अपने-आप में पूर्ण नहीं है। यह संख्या अन्य संख्याओं से मिलकर बनती है
(जैसे कि दो जमा आठ)। संख्याओं में केवल शून्य ही
पूर्ण है और यदि आप शून्य में से शून्य घटा दें तो शून्य ही शेष रह जाता है।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस शून्य
में से घटाया जा रहा है, जिस
शून्य को घटाया जा रहा है और घटाने के बाद जो शून्य बचता है –वे सब एक ही हैं। यही कारण है कि घटा-जोड़ का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
गणित की यह व्याख्या हमें एक और चीज़ समझाती है
और वह ये कि मिश्रण में विकार आ सकता है लेकिन जो चीज़ अपने आप में पूर्ण है वह हमेशा
विकार रहित ही रहती है।दस को पाँच-पाँच, दो-आठ, तीन-तीन-तीन-एक इत्यादि में तोड़ा जा सकता
लेकिन शून्य विकार-रहित है; आप शून्य को तोड़ नहीं सकते;
क्योंकि शून्य मिश्रण नहीं है। आप पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में
तोड़ सकते हैं क्योंकि पानी मिश्रण है। इसके विपरीत आप स्वर्ण के साथ जो भी करें वह
स्वर्ण ही रहेगा क्योंकि स्वर्ण मिश्रण नहीं है बल्कि अपने आप में पूर्ण एक तत्व
है।
विज्ञान और गणित के अलावा इस बात को आपसी संबंधो के ज़रिए भी
समझा जा सकता है। दो व्यक्ति जब एक संबंध बनाते हैं
तो उनका संबंध एक मिश्रण की भांति ही होता है। दो लोगों का एक मिश्रण। जैसा कि हम
जानते हैं कि मिश्रण टूट सकता है –इसलिए संबंध भी टूट सकते
हैं। केवल वही संबंध हमेशा के लिए बने रहते हैं जिनमें दोनों व्यक्ति मिलकर एक हो
जाएँ। और ऐसा केवल तब हो सकता है जब दोनों व्यक्ति
स्वयं को शून्य कर लें –यानी स्वार्थ, अहंकार
और “मैं” की भावना को पूर्णत: त्याग
दें। ऐसा करने से व्यक्ति शून्य हो जाएगा… पूर्ण हो जाएगा… और एक सम्पूर्ण संबंध में भागीदारी
कर सकेगा।
ऊपर जितने भी उदाहरण दिए गए हैं उन सभी के बारे
में तर्क-वितर्क हो सकते हैं –क्योंकि “पूर्णमद: पूर्णमिदं…” के अर्थ को समझा सकने वाला कोई भी परफ़ेक्ट उदाहरण मिलना मुश्किल है। इसलिए,
हम दो काम कर सकते हैं; एक तो बाल की खाल खींच
सकते हैं… और दूसरे, इस अद्वितीय मंत्र
के अर्थ को और बेहतर समझने के लिए मनन कर सकते हैं…
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